इंसानी लापरवाही का नतीजा है उत्तराखंड का कहर!
हमारे बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि प्राकृति कभी किसी को मुश्किल में नहीं डालती है। लेकिन जब आप प्राकृति के साथ लगातार छेड़छाड़ करते रहते हैं, तो उसका सब्र का बांध टूट जाता है और परिणाम इसी रूप में सामने आता है जैसे उत्तराखंड में आया है। यहां भी पिछले कुछ सालों में प्राकृति के साथ इतनी ज्यादा छेड़छाड़ हुई है कि उसका सब्र का बांध टूट गया। यह इंसानी लालच का ही नतीजा है जिसकी वजह से पहाड़ों पर घर के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता। लगातार जल परियोजनाएं पहाड़ों पर चलाई जा रही हैं। इसकी वजह से एक न एक दिन ऐसे प्रलय आना ही था।
तस्वीरों में देखें- मानसून या तबाही
अगर उत्तराखंड के आई प्रलय को कुदरत का कहर न कहकर इंसानी गलतियों को नतीजा कहें तो गलत नहीं होगा। पिछले लगभग 30 सालों में, खासकर जबसे उत्तराखंड राज्य बना है, विकास और पर्यटन के नाम पर हर तरह की दुकानें खुल गई हैं। वहां के लोग अपने मन से यहां जमीन की खरीद-फ़रोख्त कर रहे हैं। दूसरी ओर पूरे पहाड़ी क्षेत्र में लगातार अंधाधुंध खुदाई चल रही है। बिजली उत्पादन के नाम पर जगह-जगह बांध बनाकर नदियों को बांधा जा रहा है। विकास के लिए टिहरी जैसी प्राचीन बस्तियों की बलि चढ़ा दी गई और अब नतीजा सबके सामने है, यानी कहर आसमानी जरूर था पर इसकी नींव इंसानों ने सालों पहले रख दी थी।
पिघल रहा है ग्लेशियर
वैज्ञानिक बीडी जोशी का कहना है कि वातावरण परिवर्तन का कारण है जनसंख्या का बढ़ता दबाव जिसके कारण लगातार वाहनों में इजाफा हो रहा है। इसीलिए ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि नदियों का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में जब मानसून आता है, तो नदियां खतरे के निशान से ऊपर पहुंच जाती है। वहीं जब बादल फटने जैसी आपदा आती है तो भयंकर परिणाम देखने को मिलते हैं।
तस्वीरों में देखें- केदारनाथ में पसरा शमशान-सा सन्नाटा
कैग की रिपोट की अनदेखी
कहते हैं कि कुदरत पर किसी का ज़ोर नहीं चलता, लेकिनउत्तराखंड की सरकार को इस मंडराते खतरे का अंदाज़ा नहीं था, ऐसा बिल्कुल नहीं था। अगर विजय बहुगुणा की सरकार ने 2013 में पेश कैग की रिपोर्ट को तवज्जो दी होती तो इस आपदा से हुई तबाही कहीं कम होती। कुदरत का सैलाब रोकने का कोई तरीका हमारे पास भले ही ना हो, पर आंसुओं का यह सैलाब शायद ऐसा ना होता अगर उत्तराखंड की सरकार ने 2013 की कैग रिपोर्ट को संजीदगी से लिया होता। रिपोर्ट के मुताबिक ऐसी मुसीबतों से निपटने के लिए साल 2007 में STATE DISASTER MANAGEMENT AUTHORITY को बनाया गया था लेकिन इस प्राधिकरण कभी कोई गाइडलाइंस तय ही नहीं किए। इसी काम के लिए बनाई गई STATE EXECUTION COMMITTEE ने एक बार बैठक तक करने की ज़हमत नहीं उठाई। रिपोर्ट में साफ तौर पर आगाह किया गया था कि राज्य का कोई DISASTER MANAGEMENT PLAN नहीं हैं। यही नहीं, आपदा प्रबंधन के लिए खर्च होने वाले पैसे में भी बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां उजागर हुईं। कैग ने उत्तराखंड की करीब 245 जल-विद्युत परियोजनाओं को भी इस खतरे की दावत करार दिया था। रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से 38 फीसदी परियोजनाओं ने पेड़ लगाने का काम ना के बराबर किया। किसी भी प्रोजेक्ट को बाढ़ के मद्देनज़र डिजाइन नहीं किया गया। नदियों की गाद इन परियोजनाओं की सुरंगों में फंसने लगी और इसके चलते बाढ़ का खतरा बढ़ा। अब उत्तराखंड की सरकार हर तरफ़ मदद की गुहार लगा रही है। लेकिन कैग की इस रिपोर्ट को क्यों ठंडे बस्ते में डाला गया इसका जवाब मुख्यमंत्री के पास नहीं है।
तस्वीरों में देखें- आसमान से कैसे आई मौत...
आखिर क्यों नहीं बनी NDRF
उत्तराखंड में आखिर आज तक क्यों नहीं बनी एनडीआरएफ की बटालियन। प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए गठित की गई एनडीआरएफ की बटालियन देश के 10 शहरों गुवाहाटी, कोलकाता भुवनेश्वर चेन्नई पुणे गांधीनगर बठिंडा गाजियाबाद पटना और गुंटूर में है। लेकिन प्राकृतिक आपदाओं के भीषण खतरे के बावजूद उतराखंड के लिए अभी तक सिर्फ प्लानिंग ही हो रही है यानी बिहार और आंध्र प्रदेश में गठन के बाद भी उत्तराखंड को इसका इंतजार है। इस घातक ढुलमुल रवैये के लिए राज्य सरकार भी खासी जिम्मेदार है। राज्य की शायद सबसे बड़ी जरूरत के लिए सरकार का यह रवैया चौंकाने वाला है। यह कहने की जरूरत नहीं कि अगर उत्तराखंड में ही एनडीआरएफ की बटालियन स्थापित होती तो मदद जल्दी पहुंचती और नुकसान कम होता लेकिन प्यास लगने पर कुआं खोदने की सरकारी नीति के चलते जो सबसे जरूरी था नहीं हुआ।
तस्वीरों में देखें- मौत का मात देकर लौटे कुछ खुशनसीब
उत्तराखंड में बचाव और राहत कार्य युद्धस्तर पर चलाया गया। पहाड़ों पर फंसे हजारों लोगों को सेना ने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। अगर सेना बचाव और राहत कार्य इतनी तेजी से न करती तो शायद मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा हो सकती थी। हालांकि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का कहना है कि राहत और बचाव कार्य तब तक चलता रहेगा, जब तक मुसीबत में फंसे आखिरी इंसान को न निकाल लिया जाए।
अगर लाशों का ढेर, आंसुओं का सैलाब, चीख-पुकार, बर्बादी का मातम, भारी तबाही का मंजर देखकर भी अब हम नहीं संभले तो परिणाम आगे भी भयंकर देखने को मिलेंगे।
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