हम चिल्लाते रहे और आपका दिल जरा सा भी नहीं पसीजा
क्या हम उत्तराखंड त्रासदी से सबक सीखने को तैयार हैं?
♦ ग्लैडसन डुंगडुंग
जब से उत्तराखंड में लालची लोगों द्वारा निर्मित आपदा आयी है, जिसे प्राकृतिक संसाधनों को डॉलर के भाव से सौदा कर मौज-मस्ती करने वाले लोग प्राकृतिक आपदा की संज्ञा देने पर तुले हुए हैं, तब से मैं बहुत खुश हूं। लेकिन क्या मेरी खुशी का कारण हजारों लोगों की मौत, तड़पन और बेबसी है? क्या आपदा प्रबंध की लाचारी देखकर मैं प्रसन्न हूं? या क्या इस परिस्थिति में भी भाजपा और कांग्रेस के बीच चल रहे वोट बटोरने की राजनीति से मैं खुश हूं? बिल्कुल नहीं! ये सब मेरी खुशी के कारण कभी नहीं हो सकते हैं। पिछले एक सप्ताह से राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के संपादक चिल्ला-चिल्ला कर यह कह रहे हैं कि उत्तराखंड की आपदा मानव निर्मित है। यह लालची लोगों की देन है। यह अंधाधुंध विकास का परिणाम है। यह पैसा कमाने के लिए पहाड़ों की खुदाई और विकास के नाम पर नदियों का रास्ता बदलने का प्रतिफल है, इत्यादि-इत्यादि। और यही मेरी खुशी के कारण हैं।
यह इसलिए क्योंकि यही बात बार-बार कहने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों ने हम जैसे लाखों लोगों को प्रताड़ित किया, हजारों के खिलाफ फर्जी मुकदमा दायर किया, सैंकड़ों लोगों को जेलों में डाला, बहुतों को गोलियों से भून डाला और कई परिवारों को लाचार बना दिया। लेकिन कुदरत ने एक झटके में ही रास्ता मोड़ दिया है। आज वही बात बड़े-बड़े मीडिया घरानों के संपादक डंके की चोट पर कह रहे हैं और सरकारें निर्लज्ज की तरह चुपचाप सुन रही हैं। आज मिस्टर एडिटर ने भी अपने अखबार के फ्रांट पेज में लीड स्टोरी लिखी है, जिसका शीर्षक है – 'मौजूदा आर्थिक विकास मॉडल के पाप का परिणाम है उत्तराखंड में हुई तबाही'। क्या लाजवाब है? मैं क्यों न गदगद रहूं? ऐसा लगता है कि अब संपादकगण 'एक्टिविस्ट' बन गये हैं। हमारी जगह अब वे कह रहे हैं कि प्रकृति का सौदा महंगा है जनाब! लेकिन डर यह है कि ये लोग कितने दिनों तक इसे बरकरार रख पाएंगे, क्योंकि यही लोग हमारे जैसे आदिवासियों को विकास विरोधी, पिछड़ा, राष्ट्रद्रोही और न जाने क्या-क्या कह चुके हैं। हमलोग वर्षों से यही तो कह रहे हैं कि जंगलों को काट कर विकास करना कितना खतरनाक है, पहाड़ों को खोदकर इमारत बनाना मंहगा पड़ेगा, नदियों को बहने दो, प्रकृति का जरूरत के हिसाब से उपयोग करो और प्रकृति के साथ जीना सीखो। पर हमलोग की कौन सुने, हमलोग असभ्य जो ठहरे?
लेकिन उत्तराखंड में प्रकृति ने इस कदर तबाही मचायी कि स्वयं को प्रकृति से ज्यादा बुद्धिमान और शक्तिशाली समझनेवाले तथाकथित शिक्षित, सभ्य एवं विकसित कहलाने वाले लोग तबाह हो गये और देश के चारों ओर शोर मचा रहे हैं कि सरकार ने उन्हें समय पर सहायता नहीं पहुंचायी, यात्रा का सही प्रबंध नहीं किया एवं सरकार अक्षम है, इत्यादि। लेकिन ये लोग खुद का गुनाह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि उन्होंने अब तक प्राकृतिक संसाधनों को विकास के नाम पर बेचकर अपनी जेब गरम की, प्रकृति का सौदा कर मौज-मस्ती की और प्रकृति को तड़पाते रहे। क्यों उन्होंने कभी नहीं सोचा कि उनका अप्राकृतिक कार्य प्रकृति को कितना नुकसान पहुंचा सकता है? इसलिए अब प्रकृति की बारी थी और उसने दिखा दिया कि जितना भी दंभ भर ले इंसान, लेकिन वह प्रकृति से ज्यादा ताकतवर कभी नहीं बन सकता है और प्रकृति का सौदा करना उसके लिए बहुत महंगा साबित होगा।
यहां यह बात नहीं भूलना चाहिए कि जब जयराम रमेश ने उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों को इको सेंसिटिव जोन घोषित करने का आदेश जारी किया था, तो लोग विरोध पर उतर आये थे। इसमें भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों के वैसे नेता शामिल थे, जो प्रकृति को बेचकर मौज-मस्ती में जुटे हुए हैं। भाजपा सरकार की तरह ही वर्त्तमान कांग्रेस सरकार भी इको सेंसिटिव जोन घोषित करने के खिलाफ है क्योंकि वहां उनकी कमाई का जरिया खत्म हो जाएगा। यह भी प्रत्यक्ष है कि दोनों पार्टियों को देश के पूंजीपति ही चलाते हैं इसलिए उनके खिलाफ कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता है। अगर यहीं पर आदिवासियों को जंगलों से हटाने की बात होती, तो अब तक उन्हें हटा दिया गया होता, यही पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी का तर्क देकर। उत्तराखंड में तीन सौ डैम का निर्माण हो रहा है, पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों का रास्ता बदल दिया गया, बेहिसाब खनन, पहाड़ों पर होटलों का बेहिसाब निर्माण और धर्म के नाम पर जरूरत से ज्यादा पर्याटन। प्रकृति इसे कैसे बर्दास्त कर सकती थी? ये लोग विकास के नाम पर विनाश का खाका तैयार कर रहे थे।
कुछ भी हो, आजकल मैं और मेरे मित्र संजय कृष्ण बत्ती जलाकर यह खोजने की कोशिश में जुटे हैं कि 'विकास और आर्थिक तरक्की' के मुद्दे पर बड़ा-बड़ा तर्क देने वाले कवि, लेखक, बुद्धिजीवी, उद्योगपति और बड़े-बड़े थिंक टैंक कहां खो गये? क्या उन्हें सांप सूंघ गया या चील-कौवे खा गये? जब आदिवासी लोग यह तर्क देते हैं कि प्राकृतिक संसाधन का उपयोग इंसान की जरूरत के हिसाब से किया जाए और इसका बेहिसाब दोहन नहीं होना चाहिए, तब उन्हें तो सीधे तौर पर विकास विरोधी घोषित कर दिया जाता है। लेकिन हद तो यह है कि अब भी कुछ व्यापारी समूह (उद्योगपति, नेता और नौकरशाह) यह मानने को ही तैयार ही नहीं हैं कि उत्तराखंड की त्रासदी प्रकृति के दोहन का परिणाम है। वे अब भी दबी जुबान से ही सही, लेकिन यह कह रहे हैं कि विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जरूरी है। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या फिलहाल तो न के बराबर ही है। हो सकता है कुछ दिनों के बाद उत्तराखंड की त्रासदी को भुलाकर वे फिर से प्रकृति का सौदा करने में जुट जाएं।
देखा जाए तो भारत के संविधान में यह वादा किया गया है कि देश के सभी लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलेगा। लेकिन हकीकत में ऐसा क्यों नहीं होता है? क्यों मुकेश अंबानी का छह सदस्यीय परिवार 44 सौ करोड़ रुपये से निर्मित 27 मंजिला मकान में रहता है, जबकि देश में लाखों परिवारों के पास रहने के लिए मकान नहीं हैं? क्या अंबानी ने इतने पैसे सही तरीके से कमाये या सरकार की लूट नीतियों ने उन्हें देश का सबसे अमीर आदमी बना दिया? अब उसी रास्ते को अपना कर हजारों पूंजीपति प्रकृति का सौदा कर जल्द से जल्द मुकेश अंबानी के नजदीक पहुंचने की फिराक में लगे हुए हैं और केंद्र एवं राज्य सरकारें उन्हें फायदा पहुंचाने में जुटे हुए हैं। क्या यही विकास है? सवाल यह है कि अगर विकास का अर्थ लोगों के जीवन स्तर में बदलाव एवं खुशहाली लाना है, तो क्या विकास के इस रास्ते को अपना कर देश के 125 करोड़ लोगों के जीवन स्तर में बदलाव एवं खुशहाली लायी जा सकती है?
अगर आप हमारे देश में चल रहे आधुनिक विकास या आर्थिक विकास को प्राकृतिक संसाधनों का सौदा करके ही बढ़ाने के पक्ष में हैं, इसका मतलब यह समझ लीजिए कि आप प्रकृति के खिलाफ लड़ रहे हैं, जिसमें न सिर्फ आपकी हार तय है बल्कि जिस तरह से प्रकृति का दोहन अपने लालची मन को संतुष्ट करने में लगे हैं, प्रकृति उसका बदला एक के बाद एक लेने वाली है, जिसमें न सिर्फ आप बल्कि पूरी मानव सभ्यता के साथ-साथ सभी जीवित प्राणी तबाह हो जाएंगे। आदिवासियों को प्रकृति के दोहन का विरोध करने के लिए आप विकास विरोधी, अशिक्षित व पिछड़ा या कुछ और कह लें, लेकिन प्रकृति ने उत्तराखंड त्रासदी के द्वारा आदिवासियों के रास्ते को ही सही साबित किया है और अगर आप उस रास्ते पर चलने के लिए तैयार नहीं हैं, तो एक बात जरूर याद रखिए कि विकास के नाम पर प्रकृति का सौदा करना इंसान को बहुत महंगा पड़ेगा।
(ग्लैडसन डुंगडुंग। मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक। उलगुलान का सौदा नाम की किताब से चर्चा में आये। आईआईएचआर, नयी दिल्ली से ह्यूमन राइट्स में पोस्ट ग्रैजुएट किया। नेशनल सेंटर फॉर एडवोकेसी स्टडीज, पुणे से इंटर्नशिप की। फिलहाल वो झारखंड इंडिजिनस पीपुल्स फोरम के संयोजक हैं। उनसे gladsonhractivist@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
http://mohallalive.com/2013/06/26/making-money-from-nature-is-costly/
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