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Tuesday, June 4, 2013

सारदा समूह के न्यूज चैनलों और जी न्यूज की पत्रकारिता में लोकतंत्र के लिए ज्यादा बड़ा खतरा कौन है?

सारदा समूह के न्यूज चैनलों और जी न्यूज की पत्रकारिता में लोकतंत्र के लिए ज्यादा बड़ा खतरा कौन है?

। 'आपको प्रेस की स्वतंत्रता की पूरी गारंटी है, बशर्ते आप उसके मालिक हों' -ए.जे लीब्लिंग ('द न्यूयार्कर' से जुड़े रहे अमेरिकी पत्रकार) । न्यूज चैनल सहित कई चैनलों और अखबारों के मालिक और पश्चिम बंगाल में सारदा चिट फंड घोटाले के मुख्य आरोपी सुदीप्ता सेन की गिरफ्तारी के बाद से देश में मीडिया स्वामित्व, उसके  स्वरुप, कारोबारी और दूसरे हितों और उसका न्यूज मीडिया के अंतर्वस्तु पर पड़नेवाले घोषित/अघोषित प्रभावों पर बहस तेज हो गई है. हालाँकि यह बहस नई नहीं है और न ही मीडिया कारोबार में सक्रिय किसी कम्पनी का धतकर्म पहली बार सामने आया है.

यह सारदा चिट फंड की तरह अवैध धंधों/कारोबार में शामिल किसी  कंपनी के अपने धंधों को आवरण/संरक्षण/विश्वसनीयता देने के लिए मीडिया के धंधे में घुसने का भी कोई पहला या अकेला मामला नहीं है. इससे पहले भी सारदा की तरह ही जे.वी.जी और कुबेर जैसी कई चिट फंड कंपनियों ने भी धूमधाम के साथ अखबार शुरू किये, उसके जरिये एक विश्वसनीयता हासिल की और उसकी आड़ में लाखों लोगों को बेवकूफ बनाया और उनकी जीवन भर की कमाई लूट ली.

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि इनदिनों २४ हजार करोड़ रूपये की अवैध वसूली के आरोपी सहारा का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है, जी न्यूज के संपादकों पर कोयला घोटाले में फंसी जिंदल स्टील एंड पावर कम्पनी से खबरें रोकने के बदले पैसा मांगने का आरोप लगा है और आंध्र प्रदेश में साक्षी मीडिया समूह के मालिक जगनमोहन रेड्डी भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में हैं. साफ़ है कि सारदा चिट फंड घोटाला कोई अपवाद नहीं है बल्कि वह एक प्रवृत्ति या पैटर्न की ओर इशारा करता है. इस प्रवृत्ति या पैटर्न के कई पहलू हैं. पहला यह कि वैध-अवैध धंधों/कारोबार खासकर चिट फंड/फिनांस/रीयल इस्टेट आदि में आम लोगों को झांसा देकर पैसा बनाने के बाद या उसी दौरान सुदीप्तो सेन जैसा कोई ठग उसका एक  हिस्सा मीडिया के धंधे में लगाकर अखबार और आजकल न्यूज चैनल शुरू करता है जिससे न सिर्फ उसके अवैध धंधों को पुलिस/प्रशासन और राजनेताओं से संरक्षण हासिल करने में मदद मिलती  है बल्कि धंधे को भी एक तरह की विश्वसनीयता हासिल हो जाती है.

यही नहीं, इससे फर्जी और अवैध धंधे और धंधेबाज को मीडिया की जांच-पड़ताल और छानबीन से भी बच निकलने का मौका मिल जाता है क्योंकि मीडिया कंपनियों के बीच एक अघोषित लेकिन पक्का और ठोस समझौता है कि वे एक-दूसरे के वैध-अवैध धंधों और धतकरमों के बारे में कोई रिपोर्ट नहीं करेंगी. जैसे कुत्ता, कुत्ते को नहीं खाता है, वैसे ही मीडिया कम्पनियाँ एक-दूसरे के बारे में लिखने/दिखाने से परहेज करती हैं. हैरानी की बात नहीं है कि खुद को साफ़-सुथरी कहनेवाली और हमेशा  भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाने का दावा करनेवाली बड़ी कारपोरेट मीडिया कंपनियों के अखबारों/चैनलों से लेकर छोटे धंधेबाजों/ठगों के अखबारों/चैनलों में भी शायद ही कभी एक-दूसरे के वैध-अवैध धंधों और कारनामों के बारे में छपता या दिखाया जाता है.

इस प्रवृत्ति का दूसरा पहलू यह है कि मीडिया कम्पनियाँ जैसे-जैसे बड़ी हो रही हैं, उनका कारपोरेटीकरण हो रहा है, उनका मुनाफा बढ़ रहा है, वैसे-वैसे वे मीडिया से इतर दूसरे धंधों/कारोबार की ओर बढ़ रही है. हाल के वर्षों में ऐसे अनेकों उदाहरण सामने आए हैं जिनमें मीडिया कंपनियों ने रीयल इस्टेट, शापिंग माल्स, चीनी मिल, पावर स्टेशन, माइनिंग से लेकर हर तरह के कारोबार में निवेश करना और विस्तार करना शुरू कर दिया है. कहने की जरूरत नहीं है कि अपने कारोबार को फ़ैलाने में उन्हें अपनी मीडिया कंपनियों से खासी मदद मिल रही है क्योंकि उसके प्रभाव का इस्तेमाल करके वे सरकार और नेताओं/अफसरों के जरिये आसानी से लाइसेंस/ठेके और जमीन हासिल कर ले रहे हैं. आश्चर्य नहीं कि हाल के दिनों में सामने आए बड़े घोटालों में कई बड़ी मीडिया कंपनियों और उनके मालिकों के नाम भी लाभार्थियों के रूप में सामने आए हैं. उदाहरण के लिए, कोयला खदानों के आवंटन में हुई धांधली और घोटाले में कुछ मीडिया कंपनियों (जैसे लोकमत समूह और उसके मालिक विजय दर्डा) के नाम चर्चा में आए थे.

यही नहीं, ऐसी पुष्ट/अपुष्ट रिपोर्टें आपको देश के हर बड़े शहर/राज्यों की राजधानियों में सुनने को मिल जायेंगी कि कैसे इन मीडिया कंपनियों ने अवैध तरीके से जमीन कब्जाया, रीयल इस्टेट में निवेश किया है और माइनिंग के पट्टे आदि हासिल किये हैं. कहते हैं कि इसी लोभ में बहुतेरी मीडिया कंपनियों ने झारखण्ड और छत्तीसगढ़ जैसे खनिज संसाधनों से संपन्न राज्यों में अपने अखबार और चैनल का विस्तार किया है क्योंकि उससे माइनिंग  के ठेके हासिल करने में आसानी होती है. इसी से जुड़ा इस प्रवृत्ति का तीसरा पहलू यह है कि मीडिया की इस शक्ति और प्रभाव ने बड़ी कंपनियों/कार्पोरेट्स को भी मीडिया कारोबार में घुसने के लिए प्रेरित किया है. हालाँकि उनकी हमेशा से मीडिया कारोबार में दिलचस्पी रही है लेकिन हाल के वर्षों में जबसे आर्थिक उदारीकरण के नामपर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण और प्राकृतिक संसाधनों खासकर जल-जंगल-जमीन-खनिजों को कब्जाने की होड़ शुरू हुई है और दूसरी ओर, मीडिया कंपनियों के रसूख और लाबीइंग शक्ति बढ़ी है, बड़े कार्पोरेट्स भी मीडिया कंपनियों में बड़े पैमाने पर निवेश करते दिखाई पड़े हैं. उदाहरण के लिए, पिछले दो वर्षों में मुकेश अम्बानी की रिलायंस ने न सिर्फ टी.वी-18 समूह (सी.एन.बी.सी और आई.बी.एन) बल्कि ई.टी.वी समूह की कंपनियों में भी लगभग ५० फीसदी शेयर खरीद लिए हैं. इसी तरह कुमारमंगलम बिरला की आदित्य बिरला समूह ने टी.वी. टुडे समूह में लगभग २७ फीसदी का मालिकाना हासिल कर लिया है.

अनिल अम्बानी की ज्यादातर मीडिया कंपनियों में ५ से लेकर २० फीसदी तक शेयर हैं. ओसवाल समूह ने एन.डी.टी.वी में लगभग १५ फीसदी शेयर ख़रीदे हैं. यही नहीं, मीडिया कंपनियों और बड़े कारपोरेट समूहों के बीच बढ़ते गठजोड़ का एक बड़ा प्रमाण यह भी है कि सभी बड़ी मीडिया कंपनियों के निदेशक मंडल में बड़े कारपोरेट समूहों के प्रमुख शामिल हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि ये तीनों ही प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं. इसके साथ ही, मीडिया उद्योग में स्वामित्व के ढाँचे में बड़े और बुनियादी बदलाव भी हो रहे हैं. मीडिया उद्योग के इस  नए पिरामिड में सबसे ऊपर मुट्ठी भर वे बड़े कारपोरेट मीडिया समूह हैं जिनकी संख्या मुश्किल से २० के आसपास है.

लेकिन तथ्य यह है कि वे ही आज मीडिया कारोबार को नियंत्रित और निर्देशित कर रहे हैं. वे वास्तव में अभिजात्य शासक वर्ग के हिस्से हैं और इसका सबूत यह है कि उनके नाम देश के पचास और सौ सबसे ताकतवर और प्रभावशाली लोगों की सूची में छपते रहते हैं. इन चुनिंदा मीडिया समूहों के हाथ में देश के सबसे अधिक पढ़े जानेवाले २० सबसे बड़े अखबार और सबसे अधिक देखे जानेवाले १० न्यूज चैनल हैं.

हाल के वर्षों में उदारीकरण और भूमंडलीकरण का फायदा उठाकर उन्होंने न सिर्फ विदेशी निवेश आकर्षित किया है बल्कि उनका तेजी से विस्तार हुआ है. इन बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों ने क्रास मीडिया प्रतिबंधों और उससे संबंधित रेगुलेशन के अभाव का फायदा उठाकर न सिर्फ अखबार, टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट जैसे सभी मीडिया प्लेटफार्मों पर अपने कारोबार का विस्तार किया है बल्कि उन्होंने भौगोलिक सीमाओं को लांघकर क्षेत्रीय भाषाओँ के मीडिया बाजार में भी घुसपैठ की है.

इसके कारण हाल के वर्षों में मीडिया उद्योग में प्रतियोगिता बढ़ी और तीखी हुई है और इसमें छोटे-मंझोले प्रतियोगियों के लिए टिकना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है. इस बीच, कई छोटे और मंझोले अखबार/चैनल बंद हो गए हैं या बड़े मीडिया समूहों द्वारा खरीद लिए गए हैं. इससे मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण बढ़ा है और बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों के कारण एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को भी मजबूत होते हुए देखा जा सकता है. आज वे ही तय करते हैं कि देश में लोग क्या पढेंगे, देखेंगे और सोचेंगे? वे ही देश का एजेंडा तय करते हैं और जनमत बनाने में उनकी भूमिका पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गई है. इसकी वजह यह भी है कि आज मीडिया की पहुँच और उसका उपभोग बढ़ा है, अखबारों/न्यूज चैनलों के पाठकों/दर्शकों की संख्या में कई गुना का इजाफा हुआ है और इसके साथ ही, बढ़ते शहरीकरण/आप्रवासन/व्यक्तिकरण के कारण सूचनाओं के लिए लोगों की निर्भरता उनपर बढ़ी है.

आज राजनीति और राज-समाज आदि के बारे में लोगों खासकर शहरी मध्यवर्ग की सूचनाओं का मुख्य स्रोत कारपोरेट न्यूज मीडिया होता जा रहा है. जाहिर है कि इसके कारण मीडिया उद्योग के पिरामिड के शीर्ष पर बैठे इन मुट्ठी भर कारपोरेट मीडिया समूहों के मालिकों और उनके चुनिंदा संपादकों/पत्रकारों की ताकत और प्रभाव में भी भारी इजाफा हुआ है. उनकी प्रधानमंत्री से लेकर कैबिनेट मंत्रियों और अफसरों तक और शासक पार्टियों के शीर्ष नेताओं से लेकर बड़े उद्योगपतियों तक सीधी पहुँच है.
 
इनकी पहुँच और प्रभाव का कुछ अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि इनमें से कई मीडिया मालिक और पत्रकार विभिन्न पार्टियों की ओर से और कुछ 'सामाजिक - सांस्कृतिक - साहित्यिक' योगदान के कोटे से राज्यसभा में नामांकित सदस्य हैं. इनके बढ़ते प्रभाव का अंदाज़ा नीरा राडिया के टेप्स से भी चलता है जिसमें इन समूहों के जाने-माने पत्रकार लाबीइंग से लेकर कारपोरेट के इशारे पर लिखते/बोलते और फिक्सिंग करते हुए पाए गए.

इस मीडिया उद्योग के पिरामिड के मध्य में वे क्षेत्रीय/भाषाई कारपोरेट मीडिया समूह हैं जो हाल के वर्षों में तेजी से फले-फूले हैं और अपनी क्षेत्रीय सीमाओं से भी बाहर निकले हैं. इसके साथ ही उन्होंने अखबार के साथ-साथ टी.वी, रेडियो और इंटरनेट में भी पाँव फैलाया है. कहने की जरूरत नहीं है कि ये बहुत महत्वाकांक्षी हैं और इन्होंने स्थानीय शासक वर्ग में अपनी पैठ और प्रभाव के बलपर अपने कारोबार को फैलाया है. वे मीडिया के अलावा दूसरे कारोबारों में भी घुस रहे हैं ताकि बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों के मुकाबले टिक सकें.

यही नहीं, इनमें से कई ने मौके की नजाकत को समझते हुए बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों के साथ गठजोड़ में चले गए हैं.  इन क्षेत्रीय/भाषाई मीडिया समूहों के लिए उनके कारोबारी हित सबसे ऊपर हैं और मुनाफे के लिए वे किसी भी समझौते को तैयार रहते हैं. हैरानी की बात नहीं है कि हाल के वर्षों में बिना किसी अपवाद के लगभग सभी राज्यों में क्षेत्रीय/भाषाई मीडिया समूहों और राज्य सरकारों के बीच संबंध अत्यधिक 'मधुर' बने रहे हैं.

इसकी सबसे बड़ी वजह राज्य सरकारों से मिलनेवाला विज्ञापन राजस्व और दूसरे कारोबारी फायदे रहे हैं. इस कारण ये मीडिया समूह राज्य सरकारों को नाराज नहीं करना चाहते हैं. यही नहीं, कई क्षेत्रीय मीडिया समूहों की क्षेत्रीय शासक दलों के साथ गहरी निकटता बन गई है क्योंकि इन दलों के शीर्ष नेता और मीडिया समूहों के मालिक या तो एक हैं या उनके कारोबारी हित गहरे जुड़ गए हैं. इसका एक और उल्लेखनीय पहलू यह है कि हाल के वर्षों में कई राज्यों में उनके ताकतवर नेताओं/मुख्यमंत्रियों/दलों ने जनमत को प्रभावित करने में मीडिया के बढ़ते महत्व को समझते हुए परोक्ष या सीधे मीडिया में निवेश किया है और अखबार और खासकर न्यूज चैनल शुरू किये हैं.

यही नहीं, पंजाब, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में तो शासक दलों ने टी.वी वितरण यानी केबल उद्योग पर कब्ज़ा जमा लिया है और उसके जरिये चैनलों की बाहें मरोड़ते रहते हैं. दूसरी ओर, कई राज्यों में कमजोर सरकारों/मुख्यमंत्रियों को ताकतवर क्षेत्रीय मीडिया समूह विज्ञापन से लेकर दूसरे कारोबारी फायदों के लिए ब्लैकमेल करते भी दिख जाते हैं. मीडिया उद्योग के पिरामिड के सबसे निचले हिस्से में हैं छोटी-मंझोली वे मीडिया कम्पनियाँ जिनके पीछे वैध-अवैध तरीके से रीयल इस्टेट, चिट फंड, लाटरी, ठेकेदारी, नर्सिंग होम/निजी विश्वविद्यालयों, डांस बार से लेकर अंडरवर्ल्ड तक से कमाई गई पूंजी लगी है.

इनका असली मकसद मीडिया कारोबार से ज्यादा न्यूज मीडिया को अपने वैध-अवैध धंधों को पुलिस/प्रशासन/सरकार से बचाने और सार्वजनिक जीवन में साख बटोरने के लिए इस्तेमाल करना है. ये मीडिया कम्पनियाँ घाटे के बावजूद कैसे चलती रहती हैं, इस रहस्य का सीधा संबंध उनके दूसरे वैध-अवैध कारोबार के फलने-फूलने के साथ जुड़ा हुआ है. आश्चर्य नहीं कि इन मीडिया कंपनियों के मालिक उसका इस्तेमाल नेताओं/अफसरों तक पहुँचने और उनसे लाबीइंग के लिए करते हैं.

यही नहीं, इन मीडिया कंपनियों में काम करनेवाले ज्यादातर वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों को भी पत्रकारिता से मालिकों के कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने के लिए दलाली करनी पड़ती है. इन मीडिया समूहों में संपादक/ब्यूरो चीफ जैसे पदों पर पहुँचने की सबसे बड़ी योग्यता पत्रकारों की सत्तासीन पार्टी के साथ नजदीकी और उनके संपर्क/पहुँच होते हैं. सारदा समूह को ही लीजिए जिसके चैनलों/अखबारों के सी.ई.ओ कुणाल घोष पेशे से पत्रकार होने के बावजूद समूह के शीर्ष पर इसलिए पहुँच पाए कि उनके तृणमूल के शीर्ष नेतृत्व के साथ नजदीकी संबंध थे. हैरानी की बात नहीं है कि कुणाल घोष तृणमूल के राज्यसभा सांसद भी बन गए.

लेकिन सारदा ऐसी अकेली कंपनी नहीं है जो अपने अवैध धंधों पर पर्दा डालने, उसे एक विश्वसनीयता देने और सरकार/सत्तारुढ़ पार्टी के साथ नजदीकी का फायदा उठाने के लिए अखबार/चैनल चला रही थी. देश में ऐसे अखबारों/चैनलों की संख्या सैकड़ों में है. क्या यह सिर्फ संयोग है कि देश में इस समय केन्द्र सरकार ने ८२५ चैनल के लाइसेंस दिए हुए हैं जिनमें लगभग आधे न्यूज चैनल हैं? जाहिर है कि इन न्यूज चैनलों में से लगभग आधे ऐसे ही कारोबारियों के चैनल हैं जिनके धंधे और आमदनी के स्रोत साफ़ नहीं हैं. हालाँकि वे घाटे में चल रहे हैं, वहां काम करने की परिस्थितियां बहुत खराब हैं, तनख्वाह तक समय पर नहीं मिलती है और पत्रकारिता से इतर कामों का दबाव रहता है लेकिन उनकी 'कामयाबी' देखकर ऐसे ही दूसरे कारोबारियों की मीडिया के धंधे में उतरने की लाइन लगी हुई है.

हालाँकि मीडिया उद्योग के पिरामिड के शीर्ष से लेकर नीचे तक यानी बड़ी कारपोरेट मीडिया कंपनियों से लेकर छोटी-मंझोली कंपनियों तक सभी कम या बेशी पत्रकारिता के नामपर खबरों की खरीद-फरोख्त के धंधे में लगी हुई हैं, भांति-भांति के समझौते करके अपने दूसरे कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं और पाठकों-दर्शकों की आँख में धूल झोंकने में शामिल हैं. लेकिन बड़ी कारपोरेट मीडिया कम्पनियाँ इसका सारा दोष पिरामिड के निचले और कुछ हद तक मध्य हिस्से की मीडिया कंपनियों पर डालकर अपना दामन बचाने की कोशिश कर रही हैं.

पिछले दिनों कोलकाता में इंडियन चैंबर आफ कामर्स की एक सभा में जी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा ने शिकायती लहजे में कहा कि पुलिस से बचने के लिए आज मीडिया कारोबार में बिल्डर्स, हिस्ट्री शीटर्स आ रहे हैं. दूसरी ओर, 'इंडियन एक्सप्रेस' के संपादक शेखर गुप्ता ने भी अपने एक लेख 'मेरे पास मीडिया है' में दोष फिक्सर-कारोबारियों पर मढते हुए अपनी साख बचाने के लिए बड़ी कारपोरेट मीडिया कंपनियों को सचेत किया है. लेकिन सवाल यह है कि क्या कुछ चिट फंड, रीयल इस्टेट, डांस बार आदि धंधे करनेवाले मीडिया कारोबार में आ गए हैं और मीडिया के पवित्र सरोवर को गन्दा कर रहे हैं या फिर मुद्दा 'सगरे कूप में भांग' पड़ने की है?

अगर मुद्दा सिर्फ कुछ मछलियों के तालाब को गन्दा करने का है तो साफ़-सुथरी और गंभीर पत्रकारिता करनेवाले बड़े मीडिया समूह ऐसी मछलियों का पर्दाफाश क्यों नहीं करते हैं? वे ऐसी मीडिया कंपनियों की कारगुजारियों पर चुप क्यों रहते हैं? आखिर शेखर गुप्ता के पास कौन सी ऐसी जादुई ताबीज है जिससे वे बता सकते हैं कि मीडिया कारोबार का कौन सा कारोबारी गंभीर और साफ़-सुथरी पत्रकारिता करने के लिए इस धंधे में है या आ रहा है और कौन पुलिस/प्रशासन से बचने और सरकार से अनुचित फायदे लेने के लिए आया है?

क्या यह सच नहीं है कि न्यूज मीडिया के धंधे के बड़े खिलाडी ज्यादा व्यवस्थित, सृजनात्मक और प्रबंधकीय नवोन्मेष के साथ खबरें बेचते या तोड़ते-मरोड़ते हैं जबकि छोटे-मंझोले खिलाडी वह कला नहीं सीख पाए हैं और इसलिए बहुत भद्दे तरीके से खबरों का धंधा करते हैं? उनकी चोरी जल्दी ही पकड़ी भी जाती है. सबसे बड़ी बात यह है कि दर्शकों/पाठकों में उनकी साख न के बराबर है, इसलिए वे व्यापक पाठक/दर्शक समूह को बहुत नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं लेकिन जिन बड़े अखबारों/चैनलों पर सबसे अधिक पाठकों/दर्शकों का भरोसा है, वे खबरों का सौदा करके जब उन्हें अँधेरे में रखते हैं या उनकी आँखों में धूल झोंकते हैं, तो वे आम पाठकों/दर्शकों और उनके साथ व्यापक जन समुदाय और उनके हितों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. क्या यह अब भी बताने की जरूरत है कि सारदा समूह के न्यूज चैनलों और जी न्यूज की पत्रकारिता में लोकतंत्र के लिए ज्यादा बड़ा खतरा कौन है?

लेखक आनंद प्रधान देश के जाने-माने विश्लेषक और चिंतक हैं. आईआईएमसी में प्रोफेसर हैं. बीएचयू के छात्रसंघ अध्यक्ष रह चुके हैं. उनका यह विश्लेषण 'कथादेश' मैग्जीन में प्रकाशित हो चुका है.

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