Follow palashbiswaskl on Twitter

ArundhatiRay speaks

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Jyoti basu is dead

Dr.B.R.Ambedkar

Monday, June 24, 2013

कहीं बेतरतीब विकास का नतीजा तो नहीं है हिमालय की यह बाढ़

कहीं बेतरतीब विकास का नतीजा तो नहीं है हिमालय की यह बाढ़


भारत डोगरा॥

हिमालय के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में इस समय सबसे बड़ी प्राथमिकता निश्चय ही बचाव व राहत कार्य है और इसमें कोई कसर बाकी नहीं रहनी चाहिए। पर एक बार यह विपदा का वक्त गुजर जाए तो हिमालय क्षेत्र की विकास नीति को नए सिरे से तैयार करना बहुत जरूरी है ताकि इस तरह की आपदाओं की आशंकाओं को यथासंभव कम किया जा सके, साथ ही जनहित के अनुकूल टिकाऊ विकास हो। हिमालय हमारे देश का अत्यधिक महत्वपूर्ण व संवेदनशील क्षेत्र है। इसके संतुलित व टिकाऊ विकास के लिए नीतियां बहुत सावधानी से बनानी चाहिए। जल्दबाजी में अपनाई गई या निहित स्वार्थों के दबाव में अपनाई गई नीतियों के बहुत महंगे परिणाम हिमालयवासियों को व विशेषकर यहां के गांवों में रहने वाले लोगों को भुगतने पड़े हैं।

वनों के प्रति जो व्यापारिक रुझान अपनाया गया उससे गंभीर क्षति हुई है। वन नीति के व्यापारीकरण की नीति ब्रिटिश राज के दिनों में ही आरंभ हो गई थी पर आजादी के बाद इसे रोकने के स्थान पर इसे और आगे बढ़ाया गया। कई क्षेत्रों में यह इस रूप में प्रकट हुई कि चौड़ी पत्ती के पेड़ कम होते गए व चीड़ जैसे शंकुधारी पेड़ बढ़ते गए। विदेशी शासकों की व्यापारिक प्रवृत्ति के कारण ही वनों का प्राकृतिक चित्र बदला और वन के क्षेत्र में चीड़ जैसे पेड़ों का प्रभुत्व बढ़ता गया जबकि स्थानीय लोगों के लिए उपयोगी चौड़ी पत्ती के पेड़ (जैसे बांज) कम होते गए।

चौड़ी पत्ती के पेड़ चारे के लिए भी उपयोगी हैं और इसकी हरी पत्तियों से खेतों के लिए बहुत अच्छी खाद भी मिल जाती है। अन्य लघु वन उपज के लिए भी यह उपयोगी है। दूसरी ओर चीड़ न स्थानीय लोगों के लिए अच्छा साबित हुआ, न पशुपालकों के लिए न किसानों के लिए। वन-नीति का यह प्रयास होना चाहिए था कि वन अपनी प्राकृतिक स्थिति के नजदीक हो यानी मिश्रित वन हो, जिसमें चौड़ी पत्ती के तरह-तरह के पेड़ भी हों और शंकुधारी भी। यदि इस तरह की जैव-विविधता नहीं होगी व केवल चीड़ छा जाएंगे तो जमीन के नीचे उनकी जड़ों को जमने में कठिनाई होगी और ये पेड़ भी हलके से आंधी-तूफान में भी आसानी से गिरने लगेंगे जैसा कि हो भी रहा है।

हिमालय के अनेक क्षेत्रों में अत्यधिक व अनियंत्रित खनन से वनों की भी बहुत क्षति हुई है व खेती-किसानी की भी। इस खनन ने अनेक स्थानों पर भू-स्खलन व बाढ़ की समस्या को विकट किया है और अनेक गांवों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। वन-कटान, खनन, निर्माण कार्य में विस्फोटकों के बहुत उपयोग से हिमालय की जमीन अस्त-व्यस्त होती है। इस तरह भू-स्खलन व बाढ़ का खतरा बढ़ता है और भूकंप में होने वाली क्षति की आशंका बढ़ती है। हिमालय का भूगोल ही ऐसा है कि यहां ऐसी आपदा की आशंका बढ़ेगी तो उसका असर दूर-दूर के मैदानी क्षेत्रों में भी पड़ेगा।

इस समय हिमालय क्षेत्र में सबसे बड़े विवाद का मुद्दा यहां की बांध परियोजनाएं बनी हुई हैं। पूरे हिमालयक्षेत्र में सैकड़ों बांध बनाए जा रहे हैं जिससे यहां के हजारों गांव तरह-तरह से संकटग्रस्त हो रहे हैं। यदि इनसब परियोजनाओं को समग्र रूप से देखा जाए तो ये ग्रामीण समुदायों व पर्यावरण दोनों के लिए बहुत बड़ाखतरा हैं और अनेक आपदाओं की विकटता इनके कारण काफी बढ़ सकती है। पर ऐसा कोई समग्रमूल्यांकन पूरे हिमालय क्षेत्र के लिए तो क्या किसी एक राज्य या नदी घाटी के लिए भी नहीं किया गया।बड़ी कंपनियों से जल्दबाजी में सौदेबाजी की गई व ग्रामीण समुदायों से कुछ पूछा तक नहीं गया।

सच यह है कि उत्तराखंड पारिस्थितिक तौर पर खोखला होता जा रहा है। यहां अनगिनत विद्युत परियोजनाएंशुरू की गई हैं। बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचानेका काम जारी है। एक अनुमान के मुताबिक़ राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई क़रीबपंद्रह सौ किलोमीटर होगी। इतने बड़े पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियांबहती थीं वहां सिर्फ नदी के निशान ही बचे रहेंगे। पानी के नैसर्गिक स्रोत अभी से गायब होने लगे हैं। कहींघरों में दरारें पड़ गई हैं तो कहीं पर जमीन धंसने लगी है।

बिना बारिश के भी कई जगह भूस्खलन के डर से वहां के अनेक परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने कोमजबूर रहते हैं। हिमालय की रक्षा और लोकतंत्र की रक्षा, दोनों की मांग यह है कि इन बांध परियोजनाओंपर पुनर्विचार किया जाए। स्थानीय गांववासियों तक जरूरी तकनीक पहुंचाकर उनसे व्यापक विचार-विमर्शकरना चाहिए कि किस तरह से कितना पनबिजली उत्पादन गांवों को व नदियों को क्षतिग्रस्त किए बिना होसकता है। इसी तरह पर्यटन के कार्य में जन-सहयोग के लिए गांववासियों की आजीविका से जुड़कर कार्यकरना चाहिए व पर्यावरण की रक्षा का भी ध्यान रखना चाहिए। पर्यटन में भी स्थानीय गांववासी केवलनिचले स्थान पर न हों अपितु उन्हें सम्मानजनक भूमिका मिले। वन्य-जीव रक्षा के लिए लोगों को उजाड़नाकतई जरूरी नहीं है अपितु सही योजना बने तो वन्य जीव रक्षा में स्थानीय गांववासियों को आजीविका केअनेक नए स्रोत मिल सकते हैं।

No comments: