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Thursday, June 6, 2013

माओवादी समस्या से युद्धस्तर पर निपटने की तैयारी में इस आदिवासी समाज को नजरअंदाज करने के नतीजे किसी भी माओवादी समस्या से ज्यादा भयंकर होंगे!

माओवादी समस्या से युद्धस्तर पर निपटने की तैयारी में इस आदिवासी समाज को नजरअंदाज करने के नतीजे किसी भी माओवादी समस्या से ज्यादा भयंकर होंगे!


अगर आदिवासी इलाकों में अविलंब भारत का संविधान लागू नहीं किया जाता और धर्मनिरपेक्ष लोक गणराज्य में आदिवासियों के लिए उनका सरना धर्म कोड लागू नहीं किया जाता तो बहुत जल्द भारत के आदिवासी तमाम खानों समेत प्राकृतिक संसाधनों पर अपना दखल कायम कर लेंगे, आदिवासी इलाकों में तमाम परियोजनाओं और कल कारखानों को बंद कर दिया जायेगा और आदिवासी इलाकों में कानून का राज खुद आदिवासी कायम करेंगे।


हमने जब देशभर में आदिवासी समाज से बात की तो पता चला कि `पेसा' कहीं लागू नहीं है।आदिवासियों को कहीं भी संवैधानिक प्रावधानों के तहत स्वायत्तता नहीं मिली है और पंचायती राज तो आदिवासी इलाकों में है ही नहीं।मणिशंकर अय्यर ने खुद कहा है कि अगर पंचायती राज व्यवस्था के तहत अनुसूचित जनजाति इलाकों में स्थानीय प्रशासन और आर्थिक विकास में स्थानीय लोगों की भागेदारी सुनिश्चित होती तो दंडकारण्य में माओवादी समस्या नहीं होती।


पलाश विश्वास


भारत के आदिवासी इलाकों में लोकतंत्र की बहाली के मकसद से वहां पंचायती राज के माध्यम से स्वायत्तता दिये जाने की दिशा में पहल करते हुए 1996 में `पेसा' अधिनियम लागू किया गया था। लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर कीअध्यक्षता में बनी समिति द्वारा देशभर में पंचायती राज अधिनियम लागू होने के बाद हुई प्रगति रपट के सिलसिले में हमने जब देशभर में आदिवासी समाज से बात की तो पता चला कि `पेसा' कहीं लागू नहीं है।आदिवासियों को कहीं भी संवैधानिक प्रावधानों के तहत स्वायत्तता नहीं मिली है और पंचायती राज तो आदिवासी इलाकों में है ही नहीं।मणिशंकर अय्यर ने खुद कहा है कि अगर पंचायती राज व्यवस्था के तहत अनुसूचित जनजाति इलाकों में स्थानीय प्रशासन और आर्थिक विकास में स्थानीय लोगों की भागेदारी सुनिश्चित होती तो दंडकारण्य में माओवादी समस्या नहीं होती।आदिवासी बहुल जिले यानि 'शैडयूल्ड' क्षेत्रों को जिन्हें संविधान में विशेष तौर पर रेखांकित किया गया है, उनके लिए वर्ष 1996 में संसद ने विशेष तौर पर पंचायत राज का एक अलग कानून बनाया गया, जिसे संक्षेप में पेसा कानून कहा जाता है। इस कानून में आदिवासी क्षेत्रों की विशेष जरुरतों का ध्यान रखते हुए और यहां ग्रामसभा को मजबूत करने पर विशेष ध्यान दिया गया था। आदिवासी मामलों के अधिकांश विशेषज्ञों ने यह माना है कि यदि इस कानून को पूरी ईमानदारी से लागू किया जाए तो इससे आदिवासियों को राहत देने व उनका असंतोष दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान मिल सकता है। पर दुख की बात यह है कि एक महत्वपूर्ण कानून बनाने के 17 वर्ष बाद भी किसी भी राज्य में `पेसा' कानून का सही क्रियान्वयन इसकी मूल भावना के अनुरूप नहीं हुआ है। कानून के सही क्रियान्वयन के लिए इस कानून की मूल भावना के अनुकूल जो नियम बनाने चाहिए थे वे ही ठीक से नहीं बनाए गए हैं। परिणाम यह है कि अनावश्यक विस्थापन, पर्यावरण विनाश, वन- कटान आदि समस्याओं को रोकने में व आदिवासियों की आजीविका के आधार को मजबूत करने में जो भूमिका यह कानून निभा सकता था वह संभव नहीं हो पाई है।


इसके विपरीत सुकमा जंगल पर राजनेताओं पर हुए हमले के बाद आंतरिक सुरक्षा पर हुए मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन का निष्कर्ष यहीं निकला कि माओवादियों से निपटने के लिए आदिवासी इलाकों में सरकारी खर्च में कटौती कर दी जाये और सामाजिक योजनाओंपर लगाम लगा दिये जाये क्योंकि ऐसा करने से आदिवासी इलाकों में नकदी काप्रवाह घटने से माओवादी घिर जायेंगे।यह निष्कर्ष पूरी आदिवासी जमात को माओवादी बना देने के लिए पर्याप्त है।माओवादियों से निपटने के बहाने अमूमन गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रहे जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से भी बेदखल पूरी आदिवासी ाबादी से निपटने में लगी है केंद्र और राज्यों की सरकारें।


झारखंड से लेकर महाराष्ट्र के लाल गलियारे के आदिवासी नेताओं से बात हुई तो उनका सीधे तौर पर कहना है कि आदिवासियों को उनके हक हकूक दिलाने की दिशा में प्रगति शून्य है। हम उन आदिवासी नेताओं की सुरक्षा के लिहाज से उनका नाम नहीं बता रहे हैं, जिन्होंने खुली चेतावनी दी है कि अगर आदिवासी इलाकों में अविलंब भारत का संविधान लागू नहीं किया जाता और धर्मनिरपेक्ष लोक गणराज्य में आदिवासियों के लिए उनका सरना धर्म कोड लागू नहीं किया जाता तो बहुत जल्द भारत के आदिवासी तमाम खानों समेत प्राकृतिक संसाधनों पर अपना दखल कायम कर लेंगे, आदिवासी इलाकों में तमाम परियोजनाओं और कल कारखानों को बंद कर दिया जायेगा और आदिवासी इलाकों में कानून का राज खुद आदिवासी कायम करेंगे।


ऐसा दो चार नेताओं की गीगड़ भभकी नहीं है, विभिन्न राज्य में सरनाधर्म स्मेलनों में आदिवासियों का यह सर्वसम्मत फैसला है। मुंडाविद्रोह, संथाल विद्रोह और भील विद्रोह के इतिहास से लेकर आधुनिक भारत के भूमि आंदोलनों के इतिहास इस बात का सबूत है कि आदिवासी लड़ाई के मैदानों में कभी पीठ नहीं दिखाते।


गौरतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अगले 3 से 6 माह में रफ्तार पकड़ सकती है। एक शीर्ष सरकारी अधिकारी के अनुसार 215 अटकी परियोजनाओ में से कई परियोजनाओं पर काम शुरू होने से अर्थव्यवसथा रफ्तार पकड़ेगी। वित्तीय सेवा सचिव राजीव टकरू ने आज मुंबई में स्कॉच के सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा ''हाल के समय में की गई पहलों और अगले एक-दो माह में लिए जाने वाले फैसलों के बाद प्रणाली में उल्लेखनीय सुधार देखेंगे। अगले 3 से 6 माह में अर्थव्यवस्था सुधरेगी।'' टकरू ने कहा ''मुझे उम्मीद है कि अटकी पड़ी 215 परियोजनाओं में से काफी  संख्या में परियोजनाएं फिर से शुरू हो जाने की उम्मीद है। एक बार ये परियोजनाएं शुरू होंगी, तो आपको सुधार दिखने लगेगा।  उन्होंने बताया कि सरकार ने बुनियादी ढांचा क्षेत्र की 7 लाख करोड़ रुपये की 215 ऐसी परियोजनाओ की पहचान की है जो प्रशासनिक देरी, पर्यावरण मंजूरी और अन्य बातों की वजह से क्रियान्वयन के विभिन्न स्तरों पर अटकी हुई थी। इसके अलावा 3.5 लाख करोड़ रुपये की 126 अन्य परियोजनाओ को मंजूरी मिल चुकी है, लेकिन ये अभी शुरू नहीं हो पाई हैं।


असली खतरा यह है कि अगर भारत सरकार ने आदिवासी समाज की आवाज सुनने के बजाय समूची आदिवासी जनता को माओवादी बना देने की सलवाजुड़ुम नीतियों पर चलती रहेगी तो सिर्फ लंबित और नयी योजनाएं ही नहीं, चालू परियोजनाएं, पूरा का पूरा खनन उद्योग और तमाम इस्पात कारखानों में कामकाज खटाई में पड़ जाने का खतरा है। मुख्यमंत्रियों के आंतरिक सुरक्षा सम्मेलन में जाहिर है कि इस संभावना पर विचार नहीं हुआ। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कह दिया कि लोकतंत्र में माओवाद की जगह नहीं है। भारत के आदिवासी इलाकों में लोकतंत्र है नहीं, इसीलिए वहां माओवाद की समस्या है, इस जमीनी हकीकत को मानने से इंकार कर रहे हैं प्रधानमंत्रा और तमाम मुख्यमंत्री।जो नियम बनाए गए उनमें परम्परागत आदिवासी समुदाय के गांव को परिभाषित ही नहीं किया गया है। इन नियमों में निर्दिष्ट ग्रामसभाओं का आयोजन एवं उनके संचालन की पूरी प्रक्रिया की जिम्मेदारी ग्राम पंचायत के सचिव एवं विकास अधिकारी द्वारा नामित व्यक्ति को सौंप दी गई है। प्राकृतिक संसाधनों के नियंत्रण के अधिकार को गांवसभा के स्थान पर संयुक्त वन प्रबन्धन समिति को दिया गया है जो पेसा कानून के विपरीत है। गौण वन उपज पर आदिवासी समुदाय के स्वामित्व को नकार दिया गया है। इससे संबंधित सारे अधिकार वन विभाग एवं राजस संघ को दे दिए गए है, जो पेसा कानून में प्रदत्त मालिकाना हक के अधिकारों का हनन है। नियमों से ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रामसभा का कार्य केवल सरकारी अधिकारियों के निर्देशों का पालन करना मात्र है। भूमि अधिग्रहण के मामले में परामर्श को गांव सभा के बजाय पंचायती राज संस्थाओं के स्तर पर रखा गया है। भूमि अतिक्रमण को रोकना, बेदखली की शक्तियां, उधार पर धन देने के नियंत्रण, गांवसभा के क्षेत्रों में अवैध मदिरा के संबंध में विशेष कानूनों में पेसा की मूल भावना के अनुसार बदलाव करने के स्थान पर पहले से लागू कानून की शक्तियों को ही मान्य किया गया है एवं उनके आधार पर संबंधित विभाग के अधिकारियों को निर्णय लेने के लिए अधिकार दिए गए हैं। कर्ज पर नियंत्रण की शक्ति को राय सरकार द्वारा पूर्व में अधिसूचना जारी कर ग्रामसभा और पंचायत को सहायक रजिस्ट्रार के अधिकार प्रदान किए गए थे परन्तु नए नियमों में इस संदर्भ में ग्रामसभा के अधिकारों को ही समाप्त कर दिया है।


मालूम हो कि भारत में माओवादी समस्या आदिवासी आंदोलनों की वजह से नहीं है जैसा कि भारत सरकार और राज्यसरकारों की ओर से तमाम आदिवासियों को माओवादी ब्रांड कर दिये जाने से और सैन्य राष्ट्र की ओर से उनके खिलाफ युद्धघोषणा से लगता होगा।


कुछ आदिवासी जरुर माओवादी आंदोलन में हैं और इधर माओवादी संगठनों के नेत्व में भी कुछ आदिवासी हैं, खासकर गुरिल्ला दस्तोंमें, लेकिन आदिवासी समाज आज भी आम भारतीयों की तरह शांतिप्रिय हैं, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत भारतीय संविधान के प्रावधानों के तहत अपना हक हकूक मांग रहे हैं। माओवादी समस्या से युद्धस्तर पर निपटने की तैयारी में इस आदिवासी समाज को नजरअंदाज करने के नतीजे किसी भी माओवादी समस्या से ज्यादा भयंकर होगी।




मणिशंकर अय्यर की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ समिति ने हाल ही में अपनी रिपोर्ट सार्वजनिक की है। समिति ने अपनी सिफारिशों में ग्राम पंचायतों को और भी दक्ष व प्रभावी बनाने के कई उपाय सुझाए है। इसके साथ ही समिति ने ग्राम पंचायतों को भ्रष्टाचार मुक्त ढंग से विभिन्न केंद्रीय सामाजिक योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु सशक्त बनाने के सुझाव भी दिए हैं।

समिति ने केंद्र को एक मॉडल ग्राम पंचायत कानून बनाने की सलाह भी दी है जो कि राज्यों को भी इस ओर प्रेरित करने  का काम करेगा।केंद्र को दिए सुझावों में समिति  ने अनुसूचित जाति और अन्य दूसरे संवैधानिक आयोगों की तरह पंचायत के लिए भी राष्ट्रीय आयोग की बात कही है। जिससे राज्य सरकार या केंद्र की तरफ से पंचायत से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों का उल्लघंन होने पर पंचायत के लोग सीधे आयोग के पास अपनी शिकायत ले कर जा सकें।


समिति का मानना है कि ग्राम पंचायतों को और सशक्त बनाने से कई तरह की समस्याएं खत्म की जा सकेंगी। यह सत्य है कि ग्राम पंचायतों के सशक्तीकरण से हमारी कई समस्याएं हल हुई हैं। ऐसे में जरूरी है पंचायती व्यवस्था को और बेहतर बनाया जाए। वर्तमान की नक्सल समस्या का हल भी ग्राम पंचायतों के सशक्तीकरण से संभव है।कृषि जैसे बहुत से विषय राज्य सूची में हैं। ग्रामीण विकास, गरीबी उन्मूलन पर 70 फीसद से सौ फीसद खर्च केंद्र सरकार करती है। हर साल यह खर्च बढ़ा है। बीस साल पहले केंद्र 75 हजार करोड़ खर्च करती थी, अब तीन लाख करोड़ खर्च किया जा रहा है। ये तीन लाख करोड़ 150 केंद्र प्रयोजित योजनाओं के जरिए राज्यों को भेजे जा रहे हैं। इसी आधार पर राज्य पैसे खर्च कर सकते हैं। ऐसे दिशा-निर्देश  पंचायतों के लिए भी बनाए जा सकते हैं।



समिति का मानना है कि  तमाम दिक्कतों, सरकारी अवरोधों को गिनाने के साथ मणिशंकर अय्यर मानते हैं कि पंचायत राज व्यवस्था ने जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से प्रशिक्षित लाखों लोगों की एक फौज खड़ी की है। खासकर इससे महिलाओं को आगे लाने में काफी कामयाबी मिली है। पंचायती राज के जरिए जनता देश में  38 लाख प्रतिनिधि चुनती है। इसमें 14 लाख महिलाएं होती हैं।


राजीव गांधी के सपनों को साकार करने के लिए कथित तौर पर कटिबद्ध पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर काफी समय से हैरान परेशान ही नजर आ रहे हैं। वे इस समय जयराम रमेश, किशोर चंद देव और मोंटेक सिंह अहलूवालिया के बीच फुटबाल बने हुए हैं। देश में पंचायत राज की दुर्दशा से चिंतित मणिशंकर अय्यर चाहते हैं कि इसके लिए आयोग का गठन किया जाए।

प्राप्त जानकारी के अनुसार पूर्व पंचायती राज मंत्री मणिशंकर अय्यर पिछले दिनों वर्तमान ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के दरबार में हाजिरी लगाने गए। वहां मणिशंकर अय्यर ने रमेश से कहा कि देश में पंचायती राज की हालत अच्छी नहीं कही जा सकती है साथ ही साथ राजीव गांधी के पंचायती राज के सपने को साकार करने के लिए एक आयोग का गठन किया जाना चाहिए।


बीबीसी के मुताबिक ज़मीन और जंगल के अधिकार पर होने वाले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन से पहले प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत के जंगल और आदिवासी क्षेत्रों में बढ़ रहे हिंसक संघर्ष के लिए देश की सरकारी संस्थाए और निवेशक दोषी है.


'राइट्स एंड रिसोर्सेज इनीशिएटिव' और 'सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट' के मुताबिक आने वाले 15 सालों में बड़ी परियोजनाओं के चलते भारत में संघर्ष और अशांति की आशंका है.


रिपोर्ट के मुताबिक गरीब ग्रामीण भारत के संसाधनों का दोहन लगातार जारी है और इसकी वजह से पूरे भारत के लगभग सभी राज्यों में संघर्ष की स्तिथियां पैदा हो रही हैं.


विश्व के शीर्ष विशेषज्ञों का मानना है कि भारत भी चीन, दक्षिण कोरिया और सऊदी अरब जैसे देशो की कतार में शामिल हो गया है, जहाँ 'ज़मीन का संकट' है. और ये देश विकासशील देशों की मुख्य आजीविका के स्रोत खेती की ज़मीन छीनने लगे हैं.


छिन रही ज़मीन


"प्रमुख उदाहरण अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन वनवासी अधिनियम 2006 है, जिसे जंगल और अवैध अधिग्रहणों से निवासी जनजातीय लोगों की रक्षा करने के लिए बनाया गया है, लेकिन इसका नियमित तौर पर उल्लंघन हो रहा है. इसी तरह 1996 का पंचायत अधिनियम है, जो ग्राम सभा को भूमि प्रबंधन और उसकी रक्षा करने की शक्तियां देता है. लेकिन इसकी भी अनदेखी हो रही हैं "



भारत में लगातार हो रहे भूमि अधिग्रहण पर जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 2011 के बाद से 130 जिलों में विरोध प्रदर्शन हुए हैं.


इन परियोजनाओं के लिए एक करोड़ दस लाख हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण होगा और इसका असर करोड़ों लोगों की आजीविका और जीवन पर पड़ेगा.


संस्था 'कैंपेन फॉर सरवाइवल ऐंड डिग्निटी' से जुड़े शोधकर्ता शंकर गोपालकृष्णन का कहना है,"सामुदायिक स्वामित्व वाली भूमि का बेशर्मी से हो रहा अधिग्रहण भारत के बड़े हिस्से में एक ज्वलंत मुद्दा है,"


भारतीय क़ानून


गोपालकृष्णन और उनके सहयोगियों का कहना है कि भारतीय कानून में संघर्ष के मूल कारणों का समाधान पहले से ही मौजूद है.


उनका कहना है कि प्रमुख उदाहरण अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 है, जिसे जंगल और अवैध अधिग्रहणों से निवासी जनजातीय लोगों की रक्षा करने के लिए बनाया गया है, लेकिन इसका नियमित तौर पर उल्लंघन हो रहा है.


इसी तरह 1996 का पंचायत अधिनियम (पेसा अधिनियम) है, जो ग्राम सभा को भूमि प्रबंधन और उसकी रक्षा करने की शक्तियां देता है. लेकिन इसकी भी अनदेखी हो रही हैं और देश भर में इसका उल्लंघन होता है.


पारंपरिक वन समुदायों के भूमि अधिकार के विशेषज्ञ 'राइटस एंड रिसोर्सेज इनीशिएटिव' के कार्यकारी निदेशक अरविंद खरे कहते हैं."अभी हालत ये है कि सरकार का एक हिस्सा ही किसी अन्य या इन अधिनियमों के प्रावधानों का उल्लंघन कर रहा है. क़ानून तो मौजूद है पर कानून का उल्लंघन करने के लिए कोई जुर्माना है क्या?"


खेती के लिए विदेश में ज़मीन


दिल्ली से सटे नोएडा में किसानों का संघर्ष अदालत तक गया

एक अंतर्राष्ट्रीय शोध का हवाला देते हुए अरविंद खरे कहते हैं कि भारत सरकार और भारतीय स्वामित्व वाली कंपनियों ने अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया में खेती के मकसद से भूमि का अधिग्रहण किया है.


विशेषज्ञों का मानना है कि हाल ही में भूमि अधिग्रहण, अदालती मामलों और समाचार रिपोर्टों की जांच से पता चलता है कि भारत में भूमि हड़पे जाने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में बढ़ोत्तरी देश में विकास की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक के रूप में उभर रहा है.


समाचार, रिपोर्टों और अदालत में मुकदमों के आधार पर पता चलता है कि देश हर राज्य और क्षेत्र में आदिवासी इन ज़मीन संबंधी विवादों में उलझे है, और तमाम विवाद अभी भी अनसुलझे हैं.


भारत के नक्शे में 2011 और 2012 के दौरान 602 ज़िलों में से 130 में इस तरह के हिंसक संघर्ष की पहचान की गई है.


बताते हैं कि चतुर सुजान जयराम रमेश ने बेहद शिष्टता के साथ मणिशंकर अय्यर का रूख किशोर चंद्र देव की ओर करते हुए कहा कि यह मामला पंचायती राज का है और इसके लिए वज़ीरे आज़म डॉ.मनमोहन सिंह ने किशारे चंद्र जी को पाबंद किया हुआ है। फिर क्या था मणिशंकर अय्यर ने सीधे देव के कार्यालय की ओर रूख कर दिया।


जयराम रमेश के एक करीबी ने पहचान उजागर ना करने की शर्त पर कहा कि जैसे ही मणिशंकर अय्यर ने वहां से रूखसती डाली वैसे ही रमेश ने देव को फोन कर गुरू मंत्र दे डाला। मणिशंकर अय्यर और देव की मुलाकात के बाद निर्धारित रणनीति के तहत मणिशंकर अय्यर को योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के दरवाजे भेज दिया गया।


कहा जाता है कि उसी शाम मणिशंकर अय्यर और मांेटेक सिंह की भेंट के बाद अहलूवालिया ने जयराम रमेश को फोन कर उनसे जाने अनजाने हुए अपराधों के लिए क्षमा मांगी। हत्प्रभ रमेश ने इसका कारण पूछा तब अहलूवालिया ने बताया कि किस तरह मणिशंकर अय्यर पहले जयराम फिर देव के रास्ते उन तक पहुंचे हैं।


मणि के आग्रहों से अहलूवालिया इस कदर भयजदा थे कि उन्होंने रमेश को कहा कि उन्होंने रमेश का क्या बिगाड़ा है जो मणि को उनके पीछे लगा दिया है। उन्होंने कहा कि रमेश चाहे जो काम उनसे करवा लें पर मणि को उनके पीछे से हटा लें। मणि शंकर अय्यर से घबराए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया की चर्चाएं आजकल जोरों पर हैं। सूत्रों ने समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया को बताया कि ग्रामीण स्वच्छता के लिए जयराम रमेश द्वारा अरबों रूपयों की स्वीकृति योजना आयोग से करवा लेना इसी का हिस्सा माना जा रहा है।


अय्यर के मुताबिक, पिछले 20 सालों में पंचायत चुनावों के माध्यम से 60 से 75 लाख महिलाएं घरों से निकल कर चौपाल तक पहुंचीं। ये महिलाएं हर घर के दरवाजे खटखटाती हैं और अपने लिए वोट मांगती हैं। सर्वेक्षण रपटों से पता चलता है कि कमजोर तबकों की महिलाओं का ज्यादा सशक्तीकरण हुआ है। शायद इसकी एक वजह यह भी है कि इन तबकों की महिलाएं कामकाज की वजह से पहले से ही घर से बाहर निकलती रही हैं। पंचायती व्यवस्था के अमलीकरण में आई रुकावटों के मामले में मणिशंकर अय्यर राज्यों के साथ केंद्र को भी जिम्मेदार ठहराते हैं।


1992 के संविधान संशोधन कानून के बाद पंचायती व्यवस्था में महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण रखा गया है। पंद्रह राज्यों में इसे बढ़ा कर 50 फीसद कर दिया गया है। अब देश भर में पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए 50 फीसद आरक्षण करने की कोशिश की जा रही है। इससे संबंधित विधेयक राज्य सभा से पारित हो चुका है। लोकसभा में यह लंबित है। मणिशंकर अय्यर बताते हैं कि 1989 में जब राजीव गांधी ने अपने सहयोगियों से पंचायत में महिलाओं के आरक्षण की बात की थी तो एक केंद्रीय मंत्री ने अय्यर से हुई बातचीत में उस दौरान यह शंका जताई थी कि गांवों में होने वाले इन चुनावों में इतनी ज्यादा संख्या में महिलाएं आएंगी कहां से? यह शंका निर्मूल निकली।


पंचायती राज में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण की व्यवस्था है। उनके लिए रखी गई सीटों में 33 फीसद सीट इस वर्ग की महिलाओं के लिए है। तमिलनाडु को छोड़ कर हर राज्य में ये आरक्षित सीटें चूंकि हर पांच साल बाद रोटेशन से बदलती रहती हैं, इसलिए किसी के लिए भी उस सीट पर दूसरी बार चुनाव जीतना मुश्किल है। अनुसूचित जाति, जनजाति के उम्मीदवार अगर किसी आरक्षित सीट से जीतते हैं, अपने कार्यकाल में मेहनत से काम कर लोगों का भरोसा भी जीतते हैं तो अगली बार उस सीट पर आरक्षण खत्म हो जाने से उनका दोबारा वापस आना तकरीबन नामुमकिन हो जाता है।

अय्यर के मुताबिक, उनकी कमेटी ने अपनी रपट में यह सिफारिश की है कि लोकसभा या विधानसभा की सीटें लंबे समय तक आरक्षित रहती हैं। नए परिसीमन के साथ उसे जैसे बदला जाता है उसी तरह पंचायत स्तर पर भी होना चाहिए। इसके पीछे वे ठोस तर्क भी देते हैं। लोकसभा या विधानसभा की सीटों के लंबे आरक्षण से कमजोर तबकों के कई उम्मीदवार वहां से लगातार जीत कर राज्य या राष्ट्रीय स्तर के बड़े नेता बने। पंचायत स्तर पर भी लगातार अपने प्रभाव को कायम रख कमजोर तबकों के उम्मीदवार बड़े नेता के रूप में उभर सकते हैं।


महिलाओं के पंचायत में आरक्षण के बाद सरपंच पति को ले कर काफी खबरें आती रहीं। यानी सरपंच बनी महिला नाममात्र की कुर्सी पर है। कामकाज की असल बागडोर उसके पति के हाथों में होती है। इस मुद्दे पर मणिशंकर अय्यर का कहना है कि ज्यादतर हिंदीभाषी राज्यों से ये मामले सामने आए हैं। ये वे राज्य हैं जहां पंचायत राज पिछड़ा रहा है। इसमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, बिहार जैसे राज्य हैं। उन्होंने कहा कि इन राज्यों में पिछले चार-पांच सालों से पंचायत चुनाव को ले कर थोड़ी तरक्की हुई है। केरल, महाराष्ट्र, गुजरात जैसे राज्यों में ऐसा नहीं है। उन्होंने इसके पीछे सदियों से भारतीय समाज में पति-पत्नी के बीच बने सामाजिक और पारिवारिक सरोकार को भी एक कारण बताया।


पूर्व केंद्रीय पंचायती राज मंत्री मणिशंकर अय्यर पंचायतों को मजबूत करने की दिशा में हमेशा से सक्रिय रहे हैं। यही कारण है कि पंचायती राज मंत्रालय ने उनकी अध्यक्षता में पंचायती राज व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए एक एक्सपर्ट कमेटी बनायी। इस कमेटी ने हाल ही में राष्ट्रीय पंचायती राज व्यवस्था के स्थापना दिवस पर अपनी रिपोर्ट जारी की है। पेश है इस रिपोर्ट के आलोक में पंचायतनामा के लिए मणिशंकर अय्यर से संतोष कुमार सिंह की हुई विशेष बातचीत..

अभी हाल ही में आपकी अध्यक्षता में बनायी गयी एक्सपर्ट कमेटी ने टूआर्डस होलिस्टिक पंचायती राज नाम से एक रिपोर्ट तैयार की है जिसे खुद प्रधानमंत्री व केंद्रीय पंचायती राज मंत्री द्वारा जारी किया गया। किन पहलुओं को आपकी रिपोर्ट में प्रमुखता से लिया गया है?


देखिये, पंचायती राज व्यवस्था के 20 वर्षों बाद यह अच्छा मौका है कि हम ठहरकर इस तथ्य पर विचार करें कि हम कितनी दूरी तय कर पाये हैं और कहां तक जाना है। इस लिहाज से हमने 700 पन्नों की इस रिपोर्ट में पंचायती राज के विभिन्न आयामों को परखने का प्रयास किया है। हमें सौंपी गयी जिम्मेवारी के अनुरूप 20 वर्ष बाद पंचायतों की स्थिति, डिवोल्यूशन बाई सेंट्रल गवर्नमेंट, डिवोल्यूशन बाई स्टेट गवर्नमेंट, जिला योजना, पंचायत प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण, पंचायत में महिलाओं की स्थिति, कमजोर तबकों के लिए पंचायती राज, अल्पसंख्यकों और नि:शक्तों की स्थिति को परखने की कोशिश की है। साथ ही साथ ग्रामीण भारत में अर्थव्यवस्था को मजबूत करने, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, पोषण, खाद्य सुरक्षा आदि विषयों को भी विस्तार से लिया गया है। इन सब बिंदुओं पर जमीनी स्तर के अनुभवों को समेटते हुए तथ्यों के संकलन और व्यवस्था को बेहतर बनाने के सुझाव दिये गये हैं।


लेकिन पंचायत व्यवस्था देश में ऊपरी तौर पर बहुत सफल दिखायी दे रही है?


मैं भी इस तथ्य को स्वीकार करता हूं कि हमारे देश में पंचायती राज व्यवस्था का 20 वर्षों में व्यापक विस्तार हुआ है। आज देश में 2.5 लाख पंचायतों में लगभग 32 लाख प्रतिनिधि चुन कर आ रहे हैं। इनमें से 13 से 14 लाख महिलाएं चुन कर आयी हैं। लेकिन साथ ही सवाल उठता है कि क्या इन प्रतिनिधियों को उनके अधिकार मिले। क्या वे स्थानीय प्रशासन की आरंभिक इकाई के रूप में काम कर पा रही हैं? क्या सत्ता का सही अर्थ में विकेंद्रीकरण हो पाया है? जवाब नहीं है। लेकिन साथ ही सवाल यह भी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? रिपोर्ट बताती है कि देश की नौकरशाही सांसदों और विधायकों के आदेश का पालन करने के लिए तो तत्पर दिखती है। लेकिन इसी नौकरशाही के पास इस बात का कोई अनुभव नहीं है कि स्थानीय स्तर पर चुने गये नुमाइंदों को कैसे उनके कार्य में सहयोग दें। सहयोग के नाम पर इन चुने हुए प्रतिनिधियों के लिए एक-दो सप्ताह या एक-दो रोज का प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया जाता है और ऐसा मान लिया जाता है कि इनको प्रशिक्षित कर दिया गया। इस लिहाज से लगता है कि अभी हमें लंबी दूरी तय करनी है और पंचायती राज के प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण दिये जाने के साथ ही यह भी जरूरी है कि इन बाबुओं को प्रशिक्षण दिया जाये कि कैसे पंचायती राज व्यवस्था के साथ तारतम्य बनाया जाये।


आपने सत्ता के विकेंद्रीकरण का सवाल उठाया? आखिर विकेंद्रीकरण क्यों नहीं हो पाया है? कहां कमियां रह गयी हैं?


मुझे लगता है कि केंद्र, राज्य और पंचायत इसी त्रिस्तरीय व्यवस्था में जो अन्योनाश्रय संबंध लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार बिंदु हो सकता था, उसमें हम पीछे रहे गये हैं। केंद्र और राज्य के बीच पंचायती राज व्यवस्था को अधिकार दिये जाने के नाम पर एक तरह की खींचतान दिखती है। 12वीं पंचवर्षीय योजना कहती है कि यह राज्य का विषय है। आज 20 साल बाद केंद्र सरकार द्वारा पंचायतों को दी जाने राशि व सामाजिक प्रक्षेत्र में किये गये बजटीय आवंटन की राशि में 25 गुणा बढोत्तरी के बावजूद हम मानव विकास सूचकांक के 2011 के आंकड़ों के मुताबिक विश्वर के 186 देशों में 136वें पायदान पर हैं। 20 वर्ष पहले भी कुछ इसी तरह की स्थिति थी। ऐसे में हमें लगता है कि केंद्र द्वारा चलाये जा रहे कम से कम आठ ऐसी सामाजिक क्षेत्र की योजनाएं हैं, जिनका लाभ अगर सही तरीके से लाभार्थियों तक पहुंचाना है तो इसकी जिम्मेवारी पंचायती राज संस्थाओं को सौंपी जानी चाहिए। क्योंकि सबसे निचले स्तर पर काम कर रहे इन जनप्रतिनिधियों मसलन ग्राम और वार्ड सभा के चुने हुए प्रतिनिधियों को उनके कार्य के लिए जवाबदेह और जिम्मेवार ठहराया जा सकता है, जबकि सरकारी विभागों और गैर सरकारी संगठनों की उनके प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती, जिनके कल्याण के लिए इन योजनाओं को तैयार किया गया है। इसलिए समेकित विकास के लिए यह जरूरी है कि इन योजनाओं से लाभ प्राप्त करने वाले समुदाय को ऐसा लगे की इस पर उनका अधिकार है। अगर इन योजनाओं की जानकारी सही तरीके से पहुंचायी जाये और उन्हें इनके साथ जोड़ा जाये तो इसके परिणाम अच्छे आयेंगे। मेरा स्पष्ट मानना है कि सब अपने दायरे में काम करें। गांव की पंचायत वह करे जो ग्रामसभा कहती है। जिला परिषद वह करे जो पंचायत समिति कहती है। इसी तरह राज्य सरकारें वह करें जो विधान परिषद और विधान सभा कहती है। केंद्र वह करे जो संसद कहती है। मजबूत केंद्र, मजबूत राज्य व मजबूत पंचायत से देश में क्रांतिकारी परिवर्तन होंगे।


यह सच है कि महिलाएं पहले की तुलना में पंचायती राज व्यवस्था से ज्यादा जुड़ रही हैं। लेकिन ऐसे कई मामले सामने आये हैं कि वे अपने अधिकारों का उपयोग सही तरीके से नहीं कर पाती और मुखिया पति, या सरपंच पति के रूप में घर के पुरुष सदस्य ही उनकी जवाबदेही निभाते हैं?


वर्ष 2007 में केंद्रीय पंचायती राज मंत्री रहते हुए हमने एक सर्वे कराया। इस सर्वे के दौरान 20,000 पंचायत प्रतिनिधियों की पड़ताल की गयी। इसमें से 16,000 महिलाएं थीं और 4000 पुरुष। इस सर्वे के दौरान कई सकारात्मक बातें सामने आयी। यह पता चला कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा मेहनती, ज्यादा ईमानदार हैं। उनके अंदर सीखने की इच्छा ज्यादा होती है। साथ ही वे सीमित संसाधनों का बेहतर उपयोग करना जानती हैं। हां यह भी सही है कि पंचायती राज व्यवस्था में 33 फीसदी आरक्षण दिये जाने के कारण महिलाओं की भागीदारी काफी बढ़ी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो पंचायती राज संस्थाओं में 50 फीसदी आरक्षण देकर न सिर्फ बिहार की महिलाओं को पंचायती व्यवस्था से जोड़ने में अहम भूमिका निभायी है, बल्कि इस मायने में वे अन्य राज्यों को रास्ता दिखाने में भी कामयाब हुए हैं और आज उनका अनुकरण करते हुए देश के 15 राज्यों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिया गया है। इसके साथ ही बिहार में नीतीश के राज में पंचायती राज व्यवस्था में भ्रष्टाचार भी पहले की तुलना में कम हुआ है।


सरपंच व छोटे अफसरों के बीच मिलीभगत कम हुई है। अन्य राज्यों की भी पढ़ी-लिखी महिलाएं, युवतियां बड़ी संख्या में पंचायती राज संस्थानों से जुड़ रही हैं। आज की लड़कियां पहले की तुलना में ज्यादा शिक्षित हैं, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं। वैसे तो हर वर्ग की महिलाएं पंचायती राज संस्थाओं में आगे आ रही हैं, लेकिन पिछड़े तबकों की महिलाएं इसलिए भी आगे आ रही हैं कि वे पहले से रोजी-रोटी कमाने के लिए घर से बाहर निकलती रही हैं। इस प्रक्रिया में उन्हें समाज से घुलने-मिलने की आदत रही है। वे अपने दायित्वों का सफलता पूर्वक निर्वहन करती हैं।


पंचायतों में महिला आरक्षण के सवाल पर हमारी राय है कि कम से कम एक सीट पर 10 साल के लिए आरक्षण दिया जाये, ताकि वे पहले टर्म में प्राप्त अनुभवों के आधार पर आगे ठीक से काम कर सकें।


झारखंड में पंचायती राज व्यवस्था की क्या स्थिति है?


राज्य में कुछ साल पहले ही पंचायत चुनाव हुआ है। टिप्पणी करना ठीक नहीं है। पर, कार्यक्रम में जो अधिकारी आये थे, उन्होंने काफी आकर्षित किया। वहां अगर राजनैतिक स्थिरता आती है, तो पंचायती राज व्यवस्थाएं मजबूत होंगी। वहां प्राथमिकता पेसा कानून को मिलनी चाहिए। ऐसा लगता है कि पेसा के मामले में राजनीतिक बिरादरी ने अपना मन नहीं बनाया है। झारखंड का सपना हकीकत में तभी बदलेगा जब पेसा कानून को सही तरीके से लागू किया जाये। अनुसूचित जनजाति का मुख्यमंत्री पेसा कानून न लागू करे तो फिर कौन कर सकेगा।


राहुल गांधी ने भी प्रधानों को अधिकार देने की बात कही है। वे जगह-जगह पर पंचायत प्रतिनिधियों से मिलते भी रहते हैं। अक्सर उनके बयान पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत किये जाने को लेकर सामने आये हैं? एक्सपर्ट कमेटी की रिपोर्ट को लेकर राहुल की क्या प्रतिक्रिया थी?


मैंने रिपोर्ट की प्रतियां उन्हें भेजी हैं। हालांकि इस पर उनसे इस मसले पर तफ्सील से बात करने का मौका नहीं मिला है। उनकी भावनाएं सही हैं, राहे ठीक हैं।


पंचायती राज व्यवस्था की मजबूती की दिशा में काम कर वे राजीव गांधी के सपनों को साकार करेंगे। मुझे लगता है कि अगर उन्होंने रिपोर्ट में दी गयी अनुशंसा पर जोर लगाया, इस दिशा में काम किया तो वे अपने पिता के सही वारिस बनेंगे और गरीबों के मसीहा साबित होंगे।


पश्चिम बंगाल में पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत कर वामपंथी दल ने 35 वर्षों तक शासन किया। अगर कांग्रेस देश में पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत कर उसके निहितार्थ को सही अर्थ में लागू करें, तो आगामी 35 वर्षों तक केंद्र की सत्ता से कांग्रेस को कोई नहीं हिला सकता।


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